धोखेबाजों के शहर में,
एक बार मैंने घर बसाया।
सच्चाई नाम के सफ़ेद पर्दों से,
उन्होंने अपना घर सजाया।
घर आओ, मिलकर रहेंगे,
कह मुझे फुसलाया।
मिठाईयाँ, शर्बत और खीर,
सब मुझे मुसकुराकर खिलाया।
फिर अपना बन कर,
लुभावनी बातों से,
अपना विश्वास जीत,
मुझे गले लगाया।
अंत था,
हाँ वो अंत था मेरा।
मेरे विश्वास का, मेरी सहजता का,
मेरी मासूमियत का, मेरे संघर्ष का।
गौर से देखने पर,
सब समझ मुझे आया।
वो सफ़ेद पर्दे तो काले कफ़न थे,
मिठाईयाँ नमकीन व तीखी,
शर्बत तो मेरा ही ख़ून था,
और वो खीर, कड़वा ज़हर।
जब इन सबको मैंने झेल लिया,
तब बातों के बाण चलाए।
मैं गलत हूँ, कपट से भरी,
स्वयं के दिल में चोर होते हुए,
मुझे ही फरेबी बतलाया।
कर्मभूमि के भीष्म जैसे,
फिर भी मैंने साहस रखा।
तब उन्होंने अपना,
आखरी दांव लगाया।
माफ़ी और वादों की वर्षा कर,
मुझे फिर इस बार गले लगाया।
उस दिन बच ना पाई, हार गई,
गिर गई, और आखरी सांस ली।
झूठों के उस शहर में,
फिर एक कत्ल हुआ था।
मुखौटों ने इस बार, गले लगा कर,
मेरी पीठ पर खंजर जो घुसाया था।
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