सुबह सुबह की चाय की प्याली,
डायरी के कुछ पुराने पन्ने,
दिल के करीब एक कोरा कागज़,
जिसमें थी एक अधूरी कहानी।
दो अधूरे अजनबी परिंदे,
और उनकी अधूरी यादें।
शर्माती, झुकती हुई निगाहें,
उनके काजल की वो अधूरी कशिश।
वो किसी की उंगलियां गिटार के तारों को छेड़ती हुई,
मानो कानों में कहे कुछ लफ्ज़ अनकहे।
ये जानते हुए की कोई मरता है,
इतराते हुए वो बालों को अधूरा सहलाना।
कभी ना खत्म होने वाली,
कुछ अधूरी खूबसूरत लम्बी बातें।
एक साथ कहीं बैठ कर,
वो अधूरे से ख्वाब बुनना।
किसी कॉफी टेबल की इर्द गिर्द,
दो शक्स और उनकी अधूरी स्ट्रॉन्ग कॉफी।
पनीर की वो सब्ज़ी किसी को खिलाना,
दूसरे का पेट अधूरा होते हुए भी भर जाना।
कुछ खाली सड़कों का लम्बा सफर,
बाईक के पहियों का वो अधूरा मकसद।
किसी एक के चोट लगना या गिर जाना,
और दूसरे की अधूरी सी तकलीफ।
चेहरे की वो हल्की शिकंद पढ़कर,
किसी का अधूरे लफ्ज़ सुन लेना।
परेशानी में झुझते हुए देख कर,
अधूरा "में हूं ना" का सुकून दे जाना।
अधूरी ख्वाहिशें, वो अधूरी बहस,
अधूरी लाचारी, अधूरे झगड़े,
अधूरा रूठना, अधूरा मनाना,
अधूरे तीन अन्मोल लफ्ज़, अधूरा गले लगाना।
सच में, अधूरी ही थी ये दास्तां,
तभी तो कोरे कागज़ पर उकेरी है।
अधूरी ज़रूर है मगर सच्ची भी है,
तभी तो अधूरे से पूरे तक का सफर अभी बाकी है।
स्नेहा
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